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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

हर समय आनन्द में मुग्ध रहें

हमें ऐसा व्यक्ति मिल जाय जो भगवान्से बलवान् हो फिर भगवान् चाहे न आयें। भगवान् बुलावें तो मैं चला जाऊँ, पर भगवान् मेरे बुलानेसे आ जायें, मेरेमें यह सामथ्र्य नहीं है।

प्रश्न-स्वप्नमें आपको दर्शन हुए तो स्वप्नमें ही करा दीजिये?

उत्तर-स्वप्रमें दर्शनका उपाय तो बता दिया कि माला फेरते-फेरते सोओ, एक दिन कभी हो भी सकते हैं।

प्रश्न-एक बार स्वप्नमें ही दर्शन करा दें?

उत्तर-होगा तो प्रेमसे ही, स्वप्रमें दर्शन हो जाय यह हमारे हाथमें नहीं, भगवान्से यही माँगे कि हर समय दर्शन होता रहे।

प्रश्न-क्या बात कहनी चाहिये ?

उत्तर-भगवान्के प्रभावकी, प्रेमकी बातोंसे ही भगवान् शीघ्र मिलते हैं। गोपियोंके प्रेमकी बातें कहनेमें भी रुकावट होती है, क्योंकि कलियुगका समय है। सबसे बढ़कर प्रेम है, आपसमें प्रेम हो जाय तो उससे भी भगवान् ही मिलेंगे। गोपियोंमें आपसमें प्रेम भगवान्को लेकर था। कोई आदमी भोगोंको लेकर प्रेम करता है तो उसका प्रेम भोगोंमें ही समझा जाता है। भगवान्के लिये आपसमें प्रेम करें तो उसके फलस्वरूप भगवान् मिलेंगे।

प्रश्न-आपसमें प्रेम पहले-जैसा नहीं देखा जाता ?

उत्तर-अब तो मुझे देखनेसे भी प्रेम नहीं होता है। आपसमें खूब प्रेम बढ़ाओ, एक-दूसरेको देखकर रोमांच होने लग जाय, अश्रुपात होने लग जाय, वास्तव में आपसमें प्रेम बढ़नेके लिये भगवान्को बुलाओ, नहीं तो आयु बीत जायगी। अपने सब भाव बदलने चाहिये। भगवान्की प्रसन्नताके अनुसार करता रहे। मनसे पूछता रहे कि इस विषयमें क्या करूं? हर समय देखे कि भगवान् मेरेसे बहुत प्रसन्न हैं, भगवान्की मेरेपर बहुत ही प्रीति है। लोगोंमें नया जीवन आना चाहिये, सबके मनमें खूब जागृति होनी चाहिये, जैसे कौरव-पाण्डवोंके युद्धमें अर्जुन जूझा करता था। जो कायर, नपुंसक हैं उनमें नया जीवन आ जाय तो मरने-मारनेको तैयार हो जायें।

शास्त्रोंमें यह बात है। वही सब श्लोक गीतामें हैं, इसलिये हमलोगोंको उचित है कि हमारेमें ऐसे भाव आयें। अभी मनकी अनुकूलतामें प्रसन्नता होती है, प्रतिकूलतामें द्वेष, घृणा, चिन्ता होती है। मनके प्रतिकूल कोई काम देखनेमें आये तो उसमें यही समझो कि यह दैवेच्छासे हो रहा है, भगवान् कर रहे हैं, दूसरेकी इच्छासे हो तो भगवान् करवा रहे हैं। खूब आनन्दमें मग्न रहे, कभी भगवान्को भूले ही नहीं। नामदेवजीकी झोंपड़ीमें आग लगती है तो बचा हुआ सामान भी उसमें डालते हैं कि इसका भी भोग लगायें।

मनके प्रतिकूल रोग आदि हो जायें तो खूब आनन्द माने कि भगवान् कर रहे हैं। परेच्छासे कैसा ही नुकसान हो जाय तो माने भगवान् करवा रहे हैं।

प्रत्येक काममें आनन्द माने तो आनन्द हो जाय। बड़ा अच्छा साधन है। दूसरी आनन्दकी बात यह है कि भगवान् हर समय पासमें खड़े हैं। उनकी आज्ञासे काम करे, समझे कि तुमसे भगवान् पसन्न हैं, उनकी प्रसन्नता में प्रसन्नता होती है। स्वेच्छा से काम हो तो समझे कि भगवान् देख रहे हैं। परेच्छामें वे करवा रहे हैं। अनिच्छामें वे कर रहे हैं, ऐसा समझे।

हर समय भगवान्का स्वरूप, दया, प्रेम स्मरण करके प्रसन्न होता रहे, भगवान्में अपना प्रेम, श्रद्धा जितनी मानेगा उतना ही आनन्द प्रत्यक्षमें है, उतनी ही शान्ति एवं आनन्द होगा। अपनी सारी क्रिया भगवन्मयी हो जाय तो बहुत ही शीघ्र भगवान्में प्रेम हो जाय। हम हर समय भगवान्की ही चर्चा करते रहें और किसी बातकी कोई इच्छा नहीं रखें। चाहे नरक में ही जायें, यह भी बहुत अच्छी बात है। भगवान् कहें-क्या चाहते हो तो यही माँगे कि हर समय आपके प्रेमकी बातें होती रहें, भगवान्का भजन कोई शर्त लेकर नहीं करें। भगवान्का ध्यान नहीं लगे तो दीवालपर मूर्ति रखकर नेत्रोंसे नेत्र मिलाकर मुग्ध हो जाय और यह समझे कि भगवान्के गुण मुझमें आ रहे हैं, खूब प्रसन्न होवे। इसी प्रकार महात्माओंसे भी मिलना हो जाय तो यह विचार करे कि वे दयाकी दृष्टिसे देख रहे हैं, प्रेममें इतना मुग्ध हो जाय कि मेरे समान धन्यभाग्य और किसका है। नेत्रोंमें समता, शान्ति, प्रेमके परमाणु भर रहे हैं, रोम-रोममें मानो आनन्द-ही-आनन्द भर रहा है। कहीं महात्माओंका दर्शन हो जाय तो उन्हें प्रेम, ज्ञान, वैराग्यका पुंज समझो। भगवान् जैसे गुणोंके पुंज हैं, ऐसे ही उन्हें गुणोंका पुंज समझो। मैं उनके दर्शनसे गुणोंके समूहको भर रहा हूँ। हमलोग अग्निको देखते हैं तो नेत्रोंमें गर्मीके परमाणु आ जाते आ रहे हैं। अपने भीतरके भाव ही गुणोंको आकर्षित करनेवाले हैं। वही द्वार हैं। यह बुद्धि स्त्रीकी अपने पतिमें हो जाय, बालककी माता-पितामें, गुरुमें शिष्यकी हो जाय तो आनन्दका ठिकाना नहीं रहे, फिर महात्माओंकी बात ही क्या है। महात्मा तो भगवान्के स्वरूप हैं ही। सबमें ऐसी बुद्धि नहीं होती, खास-खास जगहोंमें करे।

अर्जुनने पूछा-

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।

भगवान्ने खास-खास वस्तु में अुनी विभूति बता दी। जो-जो तेजवाली वस्तु हो उनमें भगवद्भाव करे, भगवद्भाव नहीं हो तो साधु भाव करे, सभी महापुरुष हैं, सभी साधु हैं।

वर्षाके समय उसकी ठंड रोम-रोममें प्रवेश कर जाती है, इसी प्रकार आनन्दकी बौछारमें मैं मुग्ध हो रहा हूँ। जैसे पतिव्रता स्पर्शसे सारे शरीरमंा रोमाच हो जाता है। हमसे भगवान् बात करें तो कितना आनन्द हो? अनुमान तो लगा सकते हैं। भगवान्से बात करनेसे जो आनन्द हो उसी तरह सबसे बात करके आनन्द कितनी मूर्खताकी बात है। हमें सब जगह ही ऐसा भाव लगें, उनमें ही करे। नहीं तो भगवान् या महापुरुषमें ही करे। भगवान् तो सब जगह हैं ही, वे कहाँ गये हैं? महाभारतके मौसलपर्वमें अर्जुनने वेदव्यासजीसे कहा-भगवान् कैसे जा सकते हैं, उनके दृष्टिगोचर नहीं होनेसे मन ठीक नहीं है। उन्होंने जवाब दिया-भगवान् परमधामको चलै गये, अत: अब तुम हिमालयमें जाकर शरीर त्याग दो।

आनन्द तो आपके हाथकी बात है, हर समय आनन्दमें आनन्दमें मुग्ध रहो, जैसे गोपियाँ रहती थीं। इसी प्रकार ज्ञानके मार्गसे सब जगह आनन्द-ही-आनन्द परिपूर्ण है आनन्दमय परमात्मा नीचे और ऊपर सर्वत्र परिपूर्ण हो रहे हैं।

मया ततमिदं सर्व जगदव्यतमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो-महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।
(गीता ९।४-६)

मुझ निराकार परमात्मासे यह सब जगत् जलसे बरफके सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्पके आधारस्थित हैं, किंतु वास्तवमें मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।

वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं; किंतु मेरी ईश्वरीय योगशक्तिको देख कि भूतोंका धारण-पोषण करनेवाला और भूतोंको उत्पन्न करनेवाला भी मेरा आत्मा वास्तवमें भूतोंमें स्थित नहीं है।

जैसे आकाशसे उत्पन्न सर्वत्र विचरनेवाला महान् वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्पद्वारा उत्पन्न होने से सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान।

इस प्रकार आनन्दमय परमात्माको देखे। पूर्ण आनन्दघन, आनन्दघन! इस प्रकार उच्चारण करनेसे रोमांच होने लग जाय। इसी प्रकार भक्तिके मार्गमें अपने मनसे सर्वत्र भगवान्को देख-देखकर प्रसन्न होवे। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पतिके गुण देख-देखकर प्रसन्न होती है, ऐसे ही भगवान्के भक्त भगवान्के गुण, प्रभाव देख-देखकर प्रसन्न होते हैं।

महापुरुष कहीं मिल जायें तो देख-देखकर प्रसन्न हो, यदि नहीं मिलें तो उनको याद करके प्रसन्न होता रहे। यह सब भाव हमें अपने हृदयमें रखने चाहिये, क्षण-क्षणमें आनन्दमें मुग्ध होना चाहिये। ऐसा होनेका उपाय सरल नहीं मालूम देता है? प्रभुकी कृपा तो है ही, अन्यथा हमलोग इकट्ठा होकर भगवान्की बातें क्यों करते। हर जगह लड़ाई की चर्चा हो रही है, अपने तो भगवान्की चर्चा होते हुए गोला, बारूद भले ही बरसे। हर समय आनन्दमें मग्न रहे। ज्ञानमार्गवाला तो इस श्लोककी याद कर ले-

सुखमात्यन्तिकं यत्तदबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।।
य लब्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिक ततः।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।। (गीता ६।२१-२२)

इन्द्रियोंसे अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो अनन्त आनन्द है; उसको जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस अवस्थामें स्थित यह योगी परमात्माके स्वरूपसे विचलित होता ही नहीं।

परमात्माको प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता।

इन श्लोकोंको सार्थक कर दे। पढ़ा तो है, अक्षरश: सार्थक कर दे। ऐसा सुख है यह विश्वास तो करना चाहिये। प्राप्त नहीं हुआ तो क्या हुआ? भगवान्के वचन तो हैं ही। आनन्द-ही-आनन्द।

भक्तिके मार्गसे भी बहुत शीघ्र प्रेम हो सकता है। हर समय अपनेको आनन्दमें डुबाये रखे, भगवान् और महापुरुषोंको बारबार याद करके एवं प्रभुको अनुभव करके आनन्दमें मुग्ध रहे। प्रभुका हमारे मस्तकपर हाथ है, प्रभु आनन्द, प्रेमकी हमारे ऊपर वर्षा कर रहे हैं। इसी प्रकार जहाँ सत्सङ्ग होता है, वहाँ प्रेम और आनन्दकी वर्षा होती है। जिनके ये भाव होते हैं उनको प्रत्यक्ष उलूक भी सूर्यके प्रकाशको अन्धकार ही बतायेंगे, पर वास्तवमें तो प्रकाश है ही।

वही मनुष्य मनुष्य है जिसको सर्वत्र प्रेम और आनन्दका अनुभव होता है, जिसको नहीं होता वह उलूक है, पशु, पक्षी है। हर समय आनन्दमें कूदे, भगवत्-कृपा मान ले। यह इसलिये मानना है ताकि अहंकार न आ जाय। प्रयत्नकी बात इसलिये कही कि प्रयलहीन न हो जाय। प्रभुकी कृपा है, महापुरुषोंकी कृपा है। हमारे प्रयलकी कमी हमारी मूर्खता है, इस अज्ञताको हटायें।

भगवान्का आना-न-आना उनके अधिकारकी बात है, पर हम यहाँ भगवान्को मान लें तो उनके आनेसे जो काम होगा, हमारे माननेसे भी वही काम होगा। उनकी गर्ज हो तो आयें, ऐसा मानकर उन्हें शामिल मानकर चर्चा करें। उन्हें शामिल करके कीर्तन, नृत्य करें। जैसे-गोपियाँ प्रभुको लेकर करती थीं, ऐसे ही हम भगवान् या महापुरुषोंको लेकर करें। फिर प्रभुको बुलानेकी आवश्यकता नहीं है। ऐसा वातावरण पैदा कर देना चाहिये जिससे वह आये बिना न रह सकें। पहरा बैठा दे कि वह आये तो मत आने दो। पुस्तकोंमें ऐसी बात पढ़ते हैं किन्तु ऐसे पुरुष उपलब्ध नहीं हैं, हम उसके पात्र क्यों नहीं बन सके। संसारमें कोई बात असम्भव नहीं है। हर समय प्रभुको पास  समझकर आनन्दमें मग्र रहना चाहिये। इस बातको समझनेके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित ध्यानावस्थामें प्रभुसे वार्तालाप पुस्तक पढ़ लेनी चाहिये।

पहले तो हम आवेशमें होकर बात करें, फिर भगवान् प्रत्यक्ष आ जायें। और देरी क्या है? पहले मेरे मनमें यह बात आती थी कि प्रभु आकर पूछे-क्या चाहते हो तो कहूँ कुछ नहीं, इसी प्रकार तुम्हारी चर्चा करते रहें। अब तो यह बात रहती है वह जो करे सो ठीक है।

अपना साधन करता चला जाय, हर समय आनन्द में मुग्ध रहे, यह बड़ी ऊँची साधना है। बर्फका ढेला जैसे जलसे तर हो रहा है, इसी प्रकार आनन्द से तर रहे, इस भक्ति के मार्ग में आनन्दका दाता प्रभुको मान लें, वे खड़े हैं आनन्दका प्रदान कर रहे हैं। मैं प्रसन्न हो रहा हूँ, मुझे देखकर वे प्रसन्न हो रहे हैं। यह प्रसन्नता उत्तरोतर बढ़ती रहे। यह अवस्था मनुष्य बना सकता है। यह अधिकार की बात है। जिसकी यह स्थिति रहे उसे चाहे अग्नि में डाल दो या मार डालो उसे कष्ट नहीं होता। यही कारण था प्रह्लादको अग्निमें डाल दिया, सुधन्वाको तेलके कड़ाहेमें डाल दिया, मीराको जहरका प्याला दे दिया, किन्तु इन कृत्योंका उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

जैसे मछली का चित्त जल में बसता है, इसी प्रकार भगवान् में ही चित्त लग जाय। भगवान्के लिये ही प्राण अर्पित हो जायें, प्रभुमें ही रमण करें।

प्रभुके चरणोंको छूकर आह्लादित होना स्पर्शके द्वारा रमण है। यहाँ सब बातें मानसिक हैं, प्रभु बड़ी मुग्धतासे बोल रहे हैं, होठ हिल रहे हैं। उन होठोंकी चाल मोहित कर रही है। प्रभुके होठोंके ऊपर साक्षात् अमृत विराजता है। उनकी वाणी भी अमृतमयी है, अमृतकी वर्षा करती है। वह प्रेममयी है। इस प्रकारके रमणसे मुग्ध होवे। प्रभुसे हम मिल रहे हैं, वे मुझे हृदयसे लगा रहे हैं। उस समय हमारा वस्त्र भी बाधक हो जाता है। प्रभुके दर्शनसे नेत्रोंमें अमृतका पान हो रहा है। प्रभुके भोजनके बाद बचा हुआ प्रसाद अमृत ही है। उस प्रसादके द्वारा हम अमृतका पान कर रहे हैं। प्रभुसे जो सुगन्ध आती है, उससे नासिकाके द्वारा अमृतका पान कर रहे हैं। हमने तन, मन, धनसे अपनेको प्रभुके अर्पण कर दिया है। इस प्रकार आनन्दमें मुग्ध होना चाहिये। भगवान् कहते हैं-इस प्रकार जो करता है मैं उसे बुद्धिमान देता हूँ, जिससे वह मुझे प्राप्त हो जाता है।

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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